मौत के साये में मासूमों की शादी: राजस्थान के गाँवों में बाल विवाह की चौंकाने वाली प्रथा और आधुनिक युग में इसका भयावह सच"

रिश्ते तलाशने से लेकर विवाह की रस्में पूरी करने तक का काम कुछ ही घंटों में निपट जाता है। छोटी उम्र की बेटियों को ससुराल भेजा जाता है, फिर अगले दिन या दो दिन बाद वापस लाया जाता है। वयस्क होने पर उन्हें दोबारा ससुराल भेजा जाता है। जो लड़कियाँ पहले से वयस्क हैं, उन्हें तुरंत ससुराल रवाना कर दिया जाता है। यह सब इतनी जल्दबाजी में होता है कि न बच्चों की सहमति ली जाती है, न उनकी भावनाओं का ख्याल रखा जाता है, और न ही रिश्ते की मजबूती पर विचार किया जाता है। यह प्रथा, जो लागत बचाने का रास्ता लगती है

मौत के साये में मासूमों की शादी: राजस्थान के गाँवों में बाल विवाह की चौंकाने वाली प्रथा और आधुनिक युग में इसका भयावह सच"

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी गाँवों में, जहाँ रेत के टीलों के बीच समय मानो सदियों पुरानी रीतियों में कैद है, एक ऐसी प्रथा चल रही है जो सुनने में किसी भयावह सपने से कम नहीं। एक परिवार में बुजुर्ग की मृत्यु होती है। शोक की छाया और मृत्युभोज की तैयारियों के बीच, अचानक ढोल-नगाड़ों की गूंज गूंजने लगती है। यह शोक का माहौल नहीं, बल्कि 10 साल की मासूम बच्चियों से लेकर किशोरों तक की आनन-फानन शादियों का तमाशा है। मृत्युभोज के मौके पर, खर्च बचाने के नाम पर बच्चों की जिंदगियाँ दाँव पर लगा दी जाती हैं। यह प्रथा, जो परंपरा का चोला पहने हुए है, आज के डिजिटल युग में बच्चों के सपनों को कुचल रही है। सोशल मीडिया पर वायरल हो रही टूटते रिश्तों, आत्महत्याओं और वैवाहिक कलह की कहानियाँ इसकी भयावह सच्चाई को बयान कर रही हैं। सवाल यह है—क्या यह सामाजिक मजबूरी है, परंपरा का बोझ, या फिर बच्चों के भविष्य के साथ क्रूर मजाक?

मृत्युभोज के साथ शादी: परंपरा या बच्चों का शोषण?

पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर जैसे जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रथा दशकों से चली आ रही है। परिवार में किसी बुजुर्ग की मृत्यु के बाद बारहवें या तेरहवें दिन मृत्युभोज का आयोजन होता है। रिश्तेदार, पड़ोसी और समाज के लोग इस मौके पर जुटते हैं। लेकिन यहाँ कहानी एक अजीब और चिंताजनक मोड़ लेती है। खर्च को कम करने की मंशा से परिवार इस अवसर का इस्तेमाल न केवल मृत्युभोज के लिए करता है, बल्कि घर के सभी कुँवारे बच्चों—चाहे उनकी उम्र 10 साल हो या उससे ज्यादा—की शादी भी कर देता है।

रिश्ते तलाशने से लेकर विवाह की रस्में पूरी करने तक का काम कुछ ही घंटों में निपट जाता है। छोटी उम्र की बेटियों को ससुराल भेजा जाता है, फिर अगले दिन या दो दिन बाद वापस लाया जाता है। वयस्क होने पर उन्हें दोबारा ससुराल भेजा जाता है। जो लड़कियाँ पहले से वयस्क हैं, उन्हें तुरंत ससुराल रवाना कर दिया जाता है। यह सब इतनी जल्दबाजी में होता है कि न बच्चों की सहमति ली जाती है, न उनकी भावनाओं का ख्याल रखा जाता है, और न ही रिश्ते की मजबूती पर विचार किया जाता है। यह प्रथा, जो लागत बचाने का रास्ता लगती है, वास्तव में बाल विवाह का एक संगठित और खतरनाक रूप है, जो भारत में बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 का खुला उल्लंघन करता है।

बाल विवाह का नया चेहरा और इसके दुष्परिणाम

यह प्रथा केवल परंपरा नहीं, बल्कि बच्चों के अधिकारों का हनन और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ है। इसके दुष्परिणाम समाज के हर स्तर पर दिखाई दे रहे हैं:

1. *स्वास्थ्य पर गहरा आघात* कम उम्र में विवाह के कारण बालिकाएँ शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो रही हैं। कम उम्र में गर्भावस्था से मातृ मृत्यु, शिशु मृत्यु और कुपोषण के मामले बढ़ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी इस समस्या को और गंभीर बना देती है। छोटी उम्र में पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उठाने से बच्चों में तनाव, अवसाद और आत्मविश्वास की कमी जैसी मानसिक समस्याएँ पैदा हो रही हैं।

2. शिक्षा का अंत:शादी के बाद अधिकांश बच्चे, खासकर बालिकाएँ, स्कूल छोड़ देती हैं। जब आज का दौर डिजिटल शिक्षा, स्टार्टअप और वैश्विक मंचों पर महिलाओं की भागीदारी का है, तब इन गाँवों की लड़कियाँ किताबों के बजाय घरेलू जिम्मेदारियों में उलझ रही हैं। शिक्षा के अभाव में वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पातीं, जिससे गरीबी का चक्र चलता रहता है।

3. *टूटते रिश्तों का दर्द*: आनन-फानन में तय किए गए ये विवाह अक्सर त्रासदी का कारण बनते हैं। जब बच्चे बड़े होते हैं, तो कई बार उन्हें अपने जीवनसाथी पसंद नहीं आते। आज के दौर में, जब सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स ने प्यार और रिश्तों की परिभाषा बदल दी है, ये जबरन रिश्ते युवाओं को बगावत की ओर धकेलते हैं। कुछ भागकर अपनी पसंद से शादी कर लेते हैं, तो कुछ निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। वैवाहिक कलह, अवैध संबंध और घरेलू हिंसा के मामले आम हैं। बहुत कम जोड़े ही इस परिस्थिति में खुशी से जीवन जी पाते हैं।

4. *सामाजिक कानूनी उल्लंघन*: यह प्रथा न केवल बच्चों के अधिकारों—शिक्षा, स्वतंत्रता और स्वास्थ्य—का हनन करती है, बल्कि कानून की भी धज्जियाँ उड़ाती है। फिर भी, सामाजिक स्वीकृति और प्रशासनिक लापरवाही के कारण यह प्रथा बदस्तूर जारी है।

सोशल मीडिया पर गूंजता दर्द

आज के डिजिटल युग में इस प्रथा की भयावहता और भी स्पष्ट हो रही है। हाल ही में एक वायरल वीडियो ने सोशल मीडिया को हिलाकर रख दिया, जिसमें राजस्थान के एक गाँव में मृत्युभोज के दौरान एक किशोरी की शादी की तस्वीरें दिखाई गईं। दुल्हन बनी बच्ची की आँखों में आँसू और चेहरे पर उदासी ने लाखों लोगों का दिल दहला दिया। टिप्पणियों में लोग गुस्से और हैरानी से सवाल उठा रहे थे: "21वीं सदी में यह क्या हो रहा है?" एक अन्य मामले में, एक युवक ने फेसबुक पर अपनी कहानी साझा की। उसने बताया कि 12 साल की उम्र में उसकी शादी कर दी गई थी, और अब वह अपनी पत्नी के साथ नहीं रहना चाहता। ऐसी कहानियाँ आज के युवाओं की उस बेचैनी को दर्शाती हैं, जो पुरानी परंपराओं और आधुनिक सोच के बीच फँसकर तड़प रहे हैं।

क्यों जिंदा है यह प्रथा?

इस प्रथा के पीछे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों का जटिल जाल है, जो इसे आज भी जिंदा रखे हुए है:

1. *गरीबी का बोझ*: ग्रामीण राजस्थान में गरीबी एक कड़वी सच्चाई है। मृत्युभोज और शादी जैसे बड़े आयोजनों का खर्च परिवारों के लिए असहनीय होता है। एक ही मौके पर दोनों काम निपटाकर वे पैसे बचाने की कोशिश करते हैं। दहेज प्रथा के कारण कम उम्र में विवाह को सस्ता और आसान माना जाता है।

2. *सामाजिक दबाव और परंपराएँ*: गाँवों में बेटियों की जल्दी शादी को "पारिवारिक सम्मान" और "सुरक्षा" से जोड़ा जाता है। परिवारों को डर रहता है कि उम्र बढ़ने पर अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा। कई समुदायों में सामूहिक विवाह को परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है।

3. *शिक्षा और जागरूकता की कमी**: ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों की कमी और शिक्षा के प्रति उदासीनता के कारण लोग बाल विवाह के दुष्परिणामों और कानूनी प्रावधानों से अनजान हैं। बालिकाओं की शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती।

4. *पितृसत्तात्मक मानसिकता*: बेटियों को "पराया धन" या "बोझ" मानने की सोच आज भी कायम है। उनकी राय या इच्छाओं को कोई महत्व नहीं दिया जाता, और जल्दी शादी को उनका भाग्य मान लिया जाता है।

5. *कानून का कमजोर पालन*: ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासनिक निगरानी की कमी के कारण मृत्युभोज जैसे सामाजिक आयोजनों में होने वाले बाल विवाह आसानी से छिप जाते हैं। सामाजिक स्वीकृति के कारण लोग इसे बिना डर के अंजाम देते हैं।

आधुनिक समाज पर गहराता संकट

यह प्रथा न केवल बच्चों के भविष्य को खतरे में डाल रही है, बल्कि पूरे समाज को पीछे धकेल रही है। शिक्षा से वंचित बच्चे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते, जिससे गरीबी का चक्र चलता रहता है। टूटते रिश्ते और वैवाहिक कलह सामाजिक अस्थिरता को बढ़ा रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसी कहानियाँ वायरल होने से समाज में बेचैनी बढ़ रही है। लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब दुनिया मंगल ग्रह पर बस्तियाँ बसाने की बात कर रही है, तब ये गाँव अपने बच्चों को अंधेरे युग में क्यों धकेल रहे हैं?

समाधान की राह

इस प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए समाज, सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना होगा। कुछ ठोस उपाय इस प्रकार हैं:

- *डिजिटल और सामुदायिक जागरूकता*: सोशल मीडिया, स्थानीय रेडियो, नुक्कड़ नाटक और सामुदायिक बैठकों के जरिए बाल विवाह के खतरों और कानूनी प्रावधानों की जानकारी गाँव-गाँव तक पहुँचानी होगी। प्रभावशाली हस्तियों और स्थानीय नेताओं को इस अभियान में शामिल करना होगा।

- *शिक्षा क्रांति*: बालिकाओं के लिए मुफ्त और सुलभ शिक्षा की व्यवस्था हो। डिजिटल लर्निंग को बढ़ावा देकर गाँवों में शिक्षा का प्रसार किया जाए। स्कूलों में लड़कियों की उपस्थिति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन योजनाएँ शुरू की जाएँ।

- *आर्थिक सहायता*: सरकार और एनजीओ गरीब परिवारों को मृत्युभोज और विवाह के लिए आर्थिक सहायता दें, ताकि वे जल्दबाजी में बच्चों की शादी न करें। दहेज प्रथा के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएँ।

- *कानूनी सख्ती*: मृत्युभोज जैसे आयोजनों पर प्रशासनिक निगरानी बढ़ाई जाए। बाल विवाह करने वालों और उसे बढ़ावा देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो। स्थानीय स्तर पर शिकायत तंत्र को मजबूत किया जाए।

- *महिलाओं का सशक्तिकरण*: लड़कियों को कौशल विकास कार्यक्रमों और रोजगार के अवसरों से जोड़ा जाए, ताकि वे आत्मनिर्भर बनें और अपनी शादी के फैसले स्वयं ले सकें। लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए सामुदायिक स्तर पर जागरूकता फैलाई जाए।

निष्कर्ष: एक नई सुबह की जरूरत

पश्चिमी राजस्थान की यह प्रथा, जो मृत्यु और विवाह जैसे विपरीत अवसरों को एक साथ जोड़ती है, आज के आधुनिक युग में एक बदनुमा दाग है। जब दुनिया कृत्रिम बुद्धिमत्ता और अंतरिक्ष अनुसंधान की बात कर रही है, तब इन गाँवों में मासूम बच्चियाँ अपनी मर्जी से जीने का हक भी नहीं माँग पा रही हैं। यह प्रथा न केवल बच्चों के सपनों को कुचल रही है, बल्कि समाज को भी अंधेरे में धकेल रही है। सोशल मीडिया पर गूंज रही इन बच्चों की चीखें हमें झकझोर रही हैं। अब समय है कि हम इस प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकें और हर बच्चे को शिक्षा, सम्मान और आजादी का हक दें। क्योंकि, जैसा कि एक शायर ने कहा था, "वक्त के साथ न बदले जो, वक्त उसे मिटा देता है।" क्या हम अपने बच्चों के भविष्य को मिटाने की कीमत पर इस प्रथा को और बर्दाश्त करेंगे? यह सवाल हर उस इंसान से है, जो बदलाव की उम्मीद रखता है।